Wednesday, May 9, 2012

कही अनकही

जीवन की लम्बी राहो पे 
चले हम दोनो साथ साथ 

यह कैसा मुकाम आया 
मेरा साया मुझसे बिछड़ गया 

वह थी उसकी आखरी रात 
कहना था मुझसे कुछ बात 

आने वाले कल ने  मुझे रोक दिया 
मैंने उसे बीच में ही टोकदिया 

दिन भर वह जीवन को निगलती 
रात में बिस्तर पर मेरे समक्ष उगलती 

एक दुसरे से इतनी निकटता बढ़ गयी 
दिनचर्या भी एक दुसरे से पूछकरनिबटती 

पेट में उठता था दर्द असहनीय 
अब जीवन के दर्द  कैसेहो सहनीय 

क्या कहना रह गया ?
इस प्रश्न पर जीवन उलझ गया 

काश! मैं वर्तमान में होता 
रख पता  मर्तवान अपनी खाली 
अंतिम साँस में उसे मुक्त रखता 
अपने अकेले जीवन में 
इस अफसोस का मलवा नहीं ढ़ोता      

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