लिखती हूँ किसलिए?
बड़ी लेखिका बनने का अरमान
लेती होँगी अंगड़ाईयाँ
नहीं, कभी नहीं.
सोचती होगी
'जो सोचा, और किसी ने
शायद सोचा न होगा'
नहीं, कभी नहीं.
बस उमड़ते घुमड़ते
विचारोँ के बादल
शब्द बन टपकते,
मन का आसमाँ
स्वच्छ साफ हो जाता.
शायद इसलिए.
अपने अनुभव को यूँ ही
गुजर जाने देना नहीं चाहती,
अनुभव की पतली ही सही
एक गलियारा बना
कोई सगा, कोई सखा
भूले भटके गुजरे इससे,
जीवन की उन तमाम
खट्टे मीठे स्वाद का जायका ले,
कहीं आह, कहीं वाह
हो सके मिल जाये उन्हें
जीवन की कोई राह.
शायद इसीलिए लिखती हूँ.
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