Saturday, January 28, 2012

पत्ते विहीन नग्न पेड़

सामने, दरवाजा खोलते ही 
पत्ते विहीन नग्न पेड़
दिखाई पड़ जाता ।

जीवित होने के सारे सबूत
जड़ में जाकर सीमित ।

वह खड़ा है, मौसम की सजा में
हमें हौसला है, फिर हरा होगा यह पेड़.

पेड़ के पांव नहीं 
इसलिए घाव भी नहीं
नहीं तो, खिलते फूलोँ के समीप जाकर 
घेर लेती उदासी उसे. 

पंछी का बसेरा भी नहीं 
जो सारे दिन फुदकते थे 
इसकी शाखाओं पर. 
तमाम शाखाएँ स्पष्ट हो गयी 
जो छिप जाती थी, हरे पत्तो के बीच।

पत्तो के वियोग में अजीब सा रूखापन 
जब कि --
पूरी रात शबनम ने 
कोमलता से भिगोया रखा था उसके तन को ।

उसकी सेवा और प्रेम 
समय का इंतजार कर रही,
आएगी ज़रूर कोमल कोपलें
हरा कर जायेगा पेड़ को  
ढक देगा उसे हरे परिधान में 
बसेरा पुनः होगा पंछी का 
इसी के डाल पर।

@बन्दना


Saturday, January 7, 2012

तू सूर्य, सत्य, अचल / असत्य, नित्य बदलती मैं



कल नहीं थी "मैं",
आज हूँ
फिर कल नहीं रहूंगी.
तू कल भी था,
आज भी है,
और कल भी रहेगा, निसंदेह

तू सूर्य - सत्य, अचल
असत्य नित्य बदलती मैं.

जब भी संसार मैं जो पाया,
मन को भाया, खूब लुभाया,
जब खोया तो, मन ने रुलाया

बचपन गया, साथ मैं पिता भी गए
बाप बन दुलराया,
विदा मांग शाम में जाते
सुबह आने का वादा कर जाते
पूरा संसार जो तुम्हारा है.

शरद की बेहद कड़कती ठण्ड में
लॉन में धूपों की तान देते चदरिया,
वहां बैठ चाय की चुस्कियों के संग
अध्ययन, मनन, और लेखन में
बहती अतुलित आनंद की धारा.

अभी स्मृति में पुत्र वियोग जब आता,
बिना कहे, तुझे सब समझ आता
सुबह उठते ही रसोई में मुस्कुराते
तेरी लाली सूरत देख भला
उदासी के तम का एक कण भी
मन पर टिक सकेगा क्या?

पुत्र बन संग-संग डोलते
रसोई समेट जब तीन बजे
आराम करने कमरे में आती
नटखट बालक बन वहां भी
खिड़की पर तुम्हे ही पाती
परेशान, थकी माँ बन, परदे खीचकर
तुमसे मुंह छुपाती
संध्या की बेला, वही लालिमा
वही मुस्कराहट, वही कल मिलने का वादा.

तुम्हे सर्वस्व समझकर
नमन हो जाता मस्तक हमारा
तुम ही हो "हम बस अभी"
यह सत्य उजागर हो जाता.

                                                               ~बंदना 

Sunday, January 1, 2012

असमंजस

इधर या उधर 
उधर या इधर 

उधर जाते ही
 छूट जायेगा इधर

असमंजस की धारा बही
द्वन्दो की आंधी चली 

मन ने पंख फैलाये 
चलूँ या उडूं

धरती पर हूँ, इसलिए ज्ञात 
आकाश है अभी अज्ञात 

निश्चित दे रही निराशा 
अनिशिचित दिखा रही आशा 

नयनोँ में नींद नहीं 
चिंतन बनी चिंता 

राह कोई दिखाता नहीं 
बीच चोराहे पर खड़े 

सोचते सोचते थका मन 
सहते सहते शिथिल पड़ा तन 

सांसो की गति हुई मध्यम
मथते मथते आया मक्खन 

मक्खन या छाछ ?
बढ़ते वजन चाहिए, मजे में खाएं मक्खन 
कम वजन चाहिए, खूब पियें छाछ 

सघन बन यह दुनियां
 राह कोई चुने 
राहगीर रहना मजे में 
चलते रहना महत्वपूर्ण 
मंजिलें तो तय हैं ही