Saturday, January 7, 2012

तू सूर्य, सत्य, अचल / असत्य, नित्य बदलती मैं



कल नहीं थी "मैं",
आज हूँ
फिर कल नहीं रहूंगी.
तू कल भी था,
आज भी है,
और कल भी रहेगा, निसंदेह

तू सूर्य - सत्य, अचल
असत्य नित्य बदलती मैं.

जब भी संसार मैं जो पाया,
मन को भाया, खूब लुभाया,
जब खोया तो, मन ने रुलाया

बचपन गया, साथ मैं पिता भी गए
बाप बन दुलराया,
विदा मांग शाम में जाते
सुबह आने का वादा कर जाते
पूरा संसार जो तुम्हारा है.

शरद की बेहद कड़कती ठण्ड में
लॉन में धूपों की तान देते चदरिया,
वहां बैठ चाय की चुस्कियों के संग
अध्ययन, मनन, और लेखन में
बहती अतुलित आनंद की धारा.

अभी स्मृति में पुत्र वियोग जब आता,
बिना कहे, तुझे सब समझ आता
सुबह उठते ही रसोई में मुस्कुराते
तेरी लाली सूरत देख भला
उदासी के तम का एक कण भी
मन पर टिक सकेगा क्या?

पुत्र बन संग-संग डोलते
रसोई समेट जब तीन बजे
आराम करने कमरे में आती
नटखट बालक बन वहां भी
खिड़की पर तुम्हे ही पाती
परेशान, थकी माँ बन, परदे खीचकर
तुमसे मुंह छुपाती
संध्या की बेला, वही लालिमा
वही मुस्कराहट, वही कल मिलने का वादा.

तुम्हे सर्वस्व समझकर
नमन हो जाता मस्तक हमारा
तुम ही हो "हम बस अभी"
यह सत्य उजागर हो जाता.

                                                               ~बंदना 

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