खुले दरवाजे, सिलवट रहित बिस्तर
एक तकिये पर दूसरा तकिया आराम फ़रमाता
मेज़ पर पुस्तकें मेहमान की तरह बंद, मौन
गिटार कवर के अंदर, बिना बजे
कॉफिन में पड़े शव के समान चिर निद्रा में
एक निर्जीव घड़ी दीवार पर
टिक-टिक चलती, कमरे में गतिमान
परदे अब भी धूप-छाँव में खुलते बंद होते
कर्म करते हुए, लटके पड़े।
रसोई के कुछ डिब्बे, जिन पर
साँझ समय कोमल, नाजुक लम्बी उँगलियाँ
अपना हाथ फेरा करती, यूँ ही पड़े
पापा रात के खाने के बाद
कुछ बातों को लेकर बेटी के साथ
पागुड़ किया करते थे
उसके बिना अब पाचन भी गड़बड़
माँ की पाक विद्या को निखारने के लिए
उचित अवसर का अभाव।
स्थान की दूरियाँ
उसके निकट सम्बन्धियों को
आहिस्ते-आहिस्ते निगल लेगी
जब मिलेंगे दो अपने
बन कर बेगानों की तरह।
©बन्दना