Tuesday, December 14, 2010

गृहणी

जवानी की दहलीज़ पर 
अभी पाँव रखा था 
बचपन --
अभी अभी गुजरा था 
अतः   
छोड़ गया था मासूमियत की छाप

वह आया जीवन में
वही जिंदगी बन गया 
सूरज की तरह केंद्र बना उसे 
चक्कर लगाती दिन और रात उसके
शाम में उसके आने पर सवेरा 
सुबह उसके जाने पर अँधेरा 
इसी अँधेरे में तलाशा
प्रकाश  
    उसके आगे सारे सूरज दिखने बंद हो गए. 

Friday, December 3, 2010

रहस्य

कुछ है, जिससे हम हैं अनजान 
सबसे पहले तो अगले क्षण से ही 
अगले क्षणों का आना है निश्चित 
पर वह क्या लेकर आएगा, इससे अनभिज्ञ 

कभी मन को शांत समंदर में डुबो दे 
कभी क्रोध के बवंडर में धकेल दे, 
कभी हँसी के ठहाकों में उड़ा दे
कभी करुण क्रंदन से तन मन भिगा दे,
कभी विश्व अपना सा लगने लगे
कभी निकट सम्बन्धी भी गैर से लगने लगे.

यह रहस्य है, पर इसका जानकर कोई तो होगा
उसने अपना परिचय तो दिया, पर पर्दा भी दिया 
परदे पर संसार चलता है, हम उसमे उलझतें हैं 
जिस जिज्ञासू ने इस परदे को हटाया 
उसने उस रहस्यकार का दर्शन पाया

जब कर्ता को जान लिया 
अब हर कर्म में उसी को डाल दिया 
 हर क्षण उसी पर समर्पित
वह रुलाएगा तो रो लेंगे 
वह हंसायेगा तो हंस लेंगे
जो कराता जायेगा, उसकी मर्जी समझ करते जायेंगे 
हम उन्हें अपनाएंगे, वो हमें गले लगायेंगे 

तू रहस्य बना रह, तेरी लीला भी रहस्मय 
हमें तो बस तेरी लीला में रस 
तेरे होने में अपार रस        
    


     

Friday, November 19, 2010

मुखौटा

दस चेहरे अपने 
कब चाहा था मैंने 
एक ही चेहरा अन्दर 
और एक ही चेहरा बाहर 
बनाये रखा बरसों।

बदलती जा रही हूँ 
पुराने वजूद को 
जब ग़मगीन होती 
मुस्कराहट का मुखौटा 
चढ़ा लिया,
नयनो से धारा बन बहते आंसू की जगह 
सख्त, तने चेहरे लिए,

साहस को समेटती   
बेबाक, उन्मुक्त बोल जाती थी जहाँ 
वहां मूक, बुत सा  चेहरा लिए  होती,

जिस सभा में अपनी 
आभा लगती मद्धिम
वहां भी दीप की तरह 
जलाये रखती खुद को।

अलग-अलग रिश्तो में 
बदलने पड़ते चेहरे 
जब कोई चेहरा नहीं होता 
तब सिर्फ खुद होते 
जीवन के इस रंगमंच के नीचे। 

@बन्दना

Tuesday, November 16, 2010

खिलाडी

सुख की नाव पर
 जीवन का सफ़र
था मजे में चल रहा
तूफां आया 
लहरों से डरे 
और लहरों में ही कूद पड़े 

साहस ने लहरों से
लड़ना सिखाया 
अब लहरों से डर
लगता  नहीं
किसी मुकाम पर
मन ठहरता नहीं.

जिसे छोड़ना  था, छूटती नहीं 
जिसे थामना था, थामे न रह पाए
जीवन के खेल में 
हम सब खिलाडी 
कभी हारते तो भूल हमारी 
जीत हुई तो 
बढ़िया खिलाडी  

परिवर्तन

ठोस बनी, जमी रही 
ऊँचे पर्वतों के शिखरों पर 
बर्फ
पिघलते ही द्रव्य बनी 
फैली, बिखरी चल पड़ी 
जमी रह  न सकी एक जगह 
जा मिली जमीं से 
नदी का नाम मिला 
धरती पर लोगों को 
जीवन दान मिला 

बिटिया मेरी

कल - कल 
छल - छल 
गति है 
लय है 
बिटिया मेरी 
बहती धारा

माता - पिता
थमे - फैले 
दो पाटों में 
बने किनारा 

निर्भय - निडर 
बढती जाना 
संघर्ष तुम्हारा 
साथ हमारा 
प्रगति तेरी
विस्तार हमारा 

अपने माता पिता के 
हम भी थे धारे
आज थमे बने किनारे 
नित रूप बदलती जिंदगानी 
बस पानी की तरह
तेरी - मेरी कहानी    


Thursday, October 7, 2010

मेरी कविता


जीवन की चक्की में,
गोल-गोल घुमती,
अपनी आयु से निकले
एक-एक दिन
एक-एक दाने
पीसते-पीसते अनुभव के आंटे,
करूणा के शीतल जल से गुंथे,
प्रेम से उसको आकार  दिया
उर्जा की अग्नि में पकाया,
फिर पक्की-कच्ची गोल-गोल रोटी
बनकर आई मेरी कविता

जीवन में कड़वे-मीठे अनुभव
आते और यूँ ही चले जाते,
जैसी पकड़ चीज़ों की
उतना सुख-दुःख का एहसास,
इसी में उलझी
इससे ही निकली,
कभी बंधन में जकड़ी
कभी उन्मुक्त हल्की,
 सारे अनुभवों को
कपड़ों की तरह ढकती 
आई मेरी कविता

जीवन की ज़मीन पर
जिसने जन्म लिया
वह कहीं ना कहीं
अवश्य है खड़ा.
सड़क का फुटपाथ
या झुग्गी झोपड़ी 
अमीरों के महल
या मध्यम  वर्ग का मकान,
वास व आवास के इन एहसासों से बनती
आई मेरी कविता




Sunday, August 15, 2010

चैतन्य प्रेम

निशा गई, उषा आई,
नींद गयी, जागरण आया,
नयन खुले, दर्शन आया,
प्रेम के  द्वार खुले
नफरत दबे पाँव भागा.

घर से ज्यों ही बाहर कदम रखा,
हवा ने भरपूर सांस दी,
उसे अन्दर रोका, वह तरफरा उठी.
खेलते मासूम शिशु को यूँ ही पकड़,
जबरदस्ती गोद में उठाने पर जैसे,
छोड़ दिया, मुक्त किया.
आगे बढ़ी, हरे-भरे पेड़-पौधों को देखा,
प्रेम से देखा, हरियाली नेत्रों को सुकून दी,
सूखे गिरे पत्ते भी मानो विदा मांग रहे.
पक्षी कुछ-कुछ गा रहे थे,
वह रोज़ गाते थे, किन्तु
हमारा मन रोज़ नहीं रस ले पाता था.
वह अपना ही राग आलापता था.
प्रेम ने उसके राग-द्वेषों को मिटाया,
आज खाली मन उन्मुक्त पक्षियों,
के संग-संग गीत गाया.

इंसान प्रेम को ही भूलता जा रहा है,
मशीन के साथ संग बढाता जा रहा है,
क्या वह परस्पर भाव को समझ पायगी,
वह तो वही दे सकती, जो उसमें गया है भरा,
प्रेम की तरह नई सृजन नहीं कर सकती.

मानव को मानव से ही प्रेम बढ़ाना होगा,
मानव न मिल पाए तो किसी चेतन शक्ति से,
जुड़ जाना होगा,
प्रकृति और प्रभु किसके पास नहीं होते?
इनसे प्रेम न बढाया जाए तो यह,
चन्द्रमा की तरह घटना शुरू हो जाता,
घटते-घटते ही मनुष्य दानव बन जाता

युद्ध, आतंक और अशांति को यह जग में फैलाता है,
भय को लिए व्यक्ति यूँ ही तड़फड़ाता है,
उनसे बचना हो तो हमें प्रेम बढ़ाना होगा,
एक-दुसरे के लिए जी कर आनंद बढ़ाना होगा.

-बंदना
 Reply

माँ





माँ! तू प्रेम की मूरत,
भली लगती तेरी सूरत.
ज्ञान की प्रथम मशाल हो,
ईश्वर का दिया तोफ़ा बेमिसाल हो.
करूणा बन बहती हो जीवन में,
जीवन के कर्म युद्ध में तुम,
बनती हमारी ढाल हो.
बदहाल एवं बेबस बच्चे को,
तेरी आँचल से मिलती छाँव है.
भूले भटके को राह दिखलाती
क्षमा करना तुम्हारा श्रृंगार है.
नास्तिक का भी मस्तक,
तेरे आगे झुकता है,



तुम अद्भुत! अनूठी उपहार हो.

तुम्हारे पेट के निकट जब,
लेट जाते, जन्नत की खुशियाँ,
इर्द-गिर्द लोटने लगती है.
समय की चाल का पता नहीं चलता
ज्यों धरती माँ घूमती रहती है,
हमें आभास भी नहीं होता.
शब्द तुम्हारे अपशब्द हो सकते,
पर भाव सदा भला ही होगा.
दर्द घोलते माँ के जीवन में,
वह कितना बेदर्दी होगा.
खुद घुट-घुटकर भी घोटती
'जीवन घूंटी' औलादों के लिए.

-बंदना