Sunday, August 15, 2010

चैतन्य प्रेम

निशा गई, उषा आई,
नींद गयी, जागरण आया,
नयन खुले, दर्शन आया,
प्रेम के  द्वार खुले
नफरत दबे पाँव भागा.

घर से ज्यों ही बाहर कदम रखा,
हवा ने भरपूर सांस दी,
उसे अन्दर रोका, वह तरफरा उठी.
खेलते मासूम शिशु को यूँ ही पकड़,
जबरदस्ती गोद में उठाने पर जैसे,
छोड़ दिया, मुक्त किया.
आगे बढ़ी, हरे-भरे पेड़-पौधों को देखा,
प्रेम से देखा, हरियाली नेत्रों को सुकून दी,
सूखे गिरे पत्ते भी मानो विदा मांग रहे.
पक्षी कुछ-कुछ गा रहे थे,
वह रोज़ गाते थे, किन्तु
हमारा मन रोज़ नहीं रस ले पाता था.
वह अपना ही राग आलापता था.
प्रेम ने उसके राग-द्वेषों को मिटाया,
आज खाली मन उन्मुक्त पक्षियों,
के संग-संग गीत गाया.

इंसान प्रेम को ही भूलता जा रहा है,
मशीन के साथ संग बढाता जा रहा है,
क्या वह परस्पर भाव को समझ पायगी,
वह तो वही दे सकती, जो उसमें गया है भरा,
प्रेम की तरह नई सृजन नहीं कर सकती.

मानव को मानव से ही प्रेम बढ़ाना होगा,
मानव न मिल पाए तो किसी चेतन शक्ति से,
जुड़ जाना होगा,
प्रकृति और प्रभु किसके पास नहीं होते?
इनसे प्रेम न बढाया जाए तो यह,
चन्द्रमा की तरह घटना शुरू हो जाता,
घटते-घटते ही मनुष्य दानव बन जाता

युद्ध, आतंक और अशांति को यह जग में फैलाता है,
भय को लिए व्यक्ति यूँ ही तड़फड़ाता है,
उनसे बचना हो तो हमें प्रेम बढ़ाना होगा,
एक-दुसरे के लिए जी कर आनंद बढ़ाना होगा.

-बंदना
 Reply

माँ





माँ! तू प्रेम की मूरत,
भली लगती तेरी सूरत.
ज्ञान की प्रथम मशाल हो,
ईश्वर का दिया तोफ़ा बेमिसाल हो.
करूणा बन बहती हो जीवन में,
जीवन के कर्म युद्ध में तुम,
बनती हमारी ढाल हो.
बदहाल एवं बेबस बच्चे को,
तेरी आँचल से मिलती छाँव है.
भूले भटके को राह दिखलाती
क्षमा करना तुम्हारा श्रृंगार है.
नास्तिक का भी मस्तक,
तेरे आगे झुकता है,



तुम अद्भुत! अनूठी उपहार हो.

तुम्हारे पेट के निकट जब,
लेट जाते, जन्नत की खुशियाँ,
इर्द-गिर्द लोटने लगती है.
समय की चाल का पता नहीं चलता
ज्यों धरती माँ घूमती रहती है,
हमें आभास भी नहीं होता.
शब्द तुम्हारे अपशब्द हो सकते,
पर भाव सदा भला ही होगा.
दर्द घोलते माँ के जीवन में,
वह कितना बेदर्दी होगा.
खुद घुट-घुटकर भी घोटती
'जीवन घूंटी' औलादों के लिए.

-बंदना