Wednesday, December 23, 2009

27/11


दो दशक बाद दस्तक,
दी पुरानी यादों ने,
जीवन में जब यह दिन आया था,
नव चेतना ने बदल दिया था,
तन-मन के पुराने रंग को,
शरीर पीड़ा के अंतिम सीमा पर,
मन मातृत्व की ऊँचाई पर ठहरा,
जीता-जागता प्राणों से भरपूर,
एक अनूठे खिलौने से,
भर दिया था गोद उसके,
गोल-गोल गुलाबी गालों ने,
गुदगुदाया था कितना मेरे मन को?
फुले-फुले, मुरे-मुरे हाथ-पैर,
खाली-खाली नयन, संसार से अनजान,
बड़ा सा सिर, बालों से भरा,
कानों पर झूलते कोमल लटें,
थोथे, बिन दाँतों के मसूड़े,
रोते वक्त दिखाई देते,
वह सारे रिश्तों से बिल्कुल अनभिज्ञ था,
हम सारे उससे कोई न कोई नाते जोड़ रखे थे
जब पहली बार उसे गोद उठाया,
कोमल स्पर्श ने हमें और सुकोमल बनाया,
बचपन से न जाने कितने बच्चे गोद उठाये,
पर इस अहसास में माँ होने का रसायन मिला था,
अपने शरीर से एक और प्राण का आगमन,
माँ! दुनिया में लाने का एक द्वार

लाना ही काफी नहीं होता,
वर्षों-वर्ष करने पड़ते हैं पोषण,
तब जाकर यह चिराग होते हैं रौशन!
समय आगे बढ़ता है निरंतर,
परिवर्तन से दिखाई देता है अंतर,
अभी जो बालक था देखते ही देखते,
बीस साल का युवा बन खड़ा है

कल तक आगे-पीछे डोलता फिरता था,
आज मीलों दूर हमसे पड़ा है
अपने ममता के आँचल की छांव से
धूप न पड़ने देती थी कभी,
आज जीवन के सारे संघर्षों को
खुद अकेले झेले जा रहा है
एक -एक वर्ष करते वह हमसे दूर
होता जा रहा है,
माया के भ्रम में जोड़ते जाते हैं,
यूँ ही हम साल वर्ष.

--बंदना

Monday, October 5, 2009

अगरबत्ती

अगरबत्ती को आज जलते देखा
पल-पल वह जलती, राख होती जा रही थी
साथ-साथ खुशबू धुएं में उड़ा रही थी
एक तिनके पर चढाये गए थे मसाले,
मसाले के जलने तक थी उसकी आयु,
जब तक जली, महक उठा कमरा,
बुझी तो राख एवं छोटा सा तिनका बचा

जब-जब मैं भी जली,
तब-तब अहम् को लिए मिटी,
अब भी ना जाने कितने मसाले,
चिपके हैं मन पर
हौले-हौले जलेंगे सारे
हल्के-हल्के राख बन उड़ेंगे सारे

जीवन रहते चाहे मसाले भर लो जितनी,
हम इंसान की कीमत है बस इतनी।

--बंदना

Thursday, October 1, 2009

चाहत

बस एक चाह थी
कोई एक राह मिल जाए
जिस पर चल कर
हर चाह मिट जाए

हर बात की शुरुआत
एक चाह से होती है
यहाँ चाह से मुक्त होने में भी तो
एक चाह पैदा हो गयी

ये चाहत के सिलसिले
समाप्त ही नहीं होते
मुंह मोड़ लो तो कुछ लम्हे
ठहर भी जाये
पुनः आने को आतुर रहते

शायद जीवन का मतलब ही
कुछ पाने की चाह के केंद्र में टिका है
उसी केंद्र पर प्रभु भी बैठा है
चाहत मिटी वह प्रकट हो जाता है
चाह को जगाना ही
उसे छुपाना है

इसी लुका छिपी, राग वैराग्य में
जीवन के खेल खेलती हूँ
कभी गम के बादलों में छुपती
तो कभी खिलखिलाती धूप में
प्रकट हो जाती हूँ

                 @बंदना

बेटी




एक ही सांस से दो जीवन चल रही थी
माँ के अन्दर एक बेटी पल रही थी
कुछ अरमान थे अधूरे, इस ख्वाब से जुड़े
जो मुझ से ना हो सका,
वह यह कर दिखलाएगी
बिटिया से ही पूर्ण हो जाउंगी
उसके लिए हर जोखिम उठाऊंगी

दहेज़ दानव के घर ना जायेगी,
स्वाभिमान से जीवन बिताएगी
दो कुलों की रक्षा करेगी
किन्तु अपनों पर आंच ना आने देगी
प्रेम ही उसका धर्म होगा
सच्चाई ही उसका कर्म होगा

आज नन्ही से परी ने
मेरे जीवन में कदम रखा,
अभी बेटी थी,
लो! माँ बन गयी

ममत्व और करूणा में
मैं भी अंधी हो जाउंगी?
पिछले आ रहे इतिहास को
क्या मैं भी दोहराऊंगी?

नहीं! नव शिशु के साथ
नव चेतना से जागी हूँ
माया में पर कर अपना होश नहीं गवाऊंगी!

यह नम्र, निर्भीक, नरम दिलवाली होगी
ज़रूरत परने पर इस्पात से भी भारी होगी
पहली बार उसे नज़र उठाकर जब देखा
सारी हसरतों को दिल में दबाकर जब देखा
गोब में लेते ही भरपूर हो गयी
अब क्या? उसी में मशगूल हो गयी!

इस कोमल कली की
पूर्ण सम्भावना तक
संभाल कर रखना होगा
मुझे माँ से माली बन जाना होगा!

-- बंदना

Saturday, September 12, 2009

बंदना





बंद, बंद, बंद,
बाहर जाना बंद,
अन्दर घर में बंद,
बंदना फिर भी न हो सकी बंद,
क्यूंकि वह बंद - ना है.

वह विचारों, सपनो की उड़ान से नभ तक,
कर्म बंधन से बंधी धरती पर,
प्रेम की ज्योत लिए सगे-सम्बन्धियों तक,
करूणा लिए विश्व के प्रत्येक प्राणी तक,
मैत्री भाव से लाबा-लब, मित्रों तक,
कोमल कठोर वात्सल्य लिए बच्चों तक,
पग - पग पर सहयोग एवं आलोचना लिए पति तक,
फैली है, बिखरी है......बंद - ना है.

-बंदना

Friday, September 11, 2009

मित्रता की लहर


जो मुझमें वही तुम में देखा ,
मिलने का संयोग बना,
एक और एक का योग दो नहीं
यहाँ सिर्फ 'एक' ही होता है .
जो मुझमें नहीं, वह तुम में देखा,
जहां-जहां अपूर्ण थीं, तुमसे ही तो पूर्ण हुई,
जब धरती पर थी मैं, तुम्हें आकाश में देखा,
जब खुद उरान भरने लगी, तुम्हें धरती थामे देखा,
सुख-दुःख की विशेष अवस्था में
दिल ढूंढता हर पल तुम्हें
हे मित्र! जब तुम समस्या के उलझनों में फंसे
मदद के लिए जब मेरे लम्बे हाथ बढे,
निजी एवं रक्त समबंधियों के बीच सिकुड़ते समबन्धों को
एक फैलाव मिला, एक विस्तार मिला.
ईश्वर ! ने चुनाव का मौका दिया,
एक-एक गुण वाले भी एकत्र कर लिए,
खजाना बहुमूल्य रत्नों से भर गया,
जौहरी बन जौहर दिखाना होगा,
पत्थर एवं रत्नों में फर्क समझना होगा,
मित्रता सत्यता पर स्थापित किया
प्रेम में बढ़ी और बहते रही.
बंदना

मेरी नानी


श्वेत रजत सी केश राशि,
सादगी ओढे, सौम्य व्यक्तित्व,
स्वीकार किया,
"नानी ना रही"

काल ने उन्हें हमसे लूटा,
रिश्ते का एक लम्बा धागा टूटा,
अब भी यादों में पलती हैं,
रक्त का अटूट सम्बन्ध,
यादों में नानी डोलती है


नम आखों से खिलखिलाती  हँसी,
बच्चों के साथ घुल - मिल जाना,
आसान नहीं,
यह स्वभाव सरलता की निशानी है,
मेरी नानी सादगी की कहानी हैं

छोटे - छोटे कामों को,
गुनगुनाते, तन्मयता से करते देखा,
साधारण काम को विशेषता दे डालतीं,
समय की पाबन्द,
हर काम समय से करती और कराती,
गणित में चतुर
मिनटों में हिसाब निपटाती थी
नाम "उत्तमा" था
काम उत्तम कर दिखलाती थीं

छोटे से गाँव में, बड़े से शहरों में,
सफ़र चलता रहा,
नानी का कदम एक ताल में,
बढ़ता रहा

दुःख में, सुख में धैर्य धारण,
विषम स्थिति सह लेतीं,
हर रिश्तों के निर्वाह के तरीके,
थे उनके निराले
अपने से संतुष्ट, अपनों से संतुष्ट,
संतुष्ट का सबक सिखलाती थी,
द्वेष, कलह से दूर,
शांति से एकांत, मौन जीवन बिताती थीं

मेरे नरम हाथों को हाथ में दबा कर,
कुछ ऐसा कह जाती थीं,
आँखों में ख्वाब, ह्रदय में विश्वास,
भरपूर जग जाती थी 

संसार में कुछ भी पाने पर,
कृतज्ञता से मन भर जाता है
अपने से बड़ों  का आशीर्वाद,
सचमुच फलित हो जाता है

अब उनके साथ बैठ,
गुफ्तगु तो न हो पायेगी 
पर जब चाहे
 आत्मा आत्मा से रूबरू हो जाएगी.