Wednesday, October 5, 2016

हे घर!



हे घर! अब नहीं मुझे तेरा डर, 
हर समस्या अब तेरा छोड़, तेरे ही हाल पर,  
निकल पड़ी अपनी बनी मकड़ जाल को तोड़ कर, 
जीवन की बहती धारा की दिशा मोड़ कर। 

छूटता है सीमित दायरा दरवाजे से कदम बाहर रखते ही,
मुस्कराता है असीम नीला अम्बर प्रथम स्वागत में ही। 

एक ही छत के नीचे रहते-रहते 
अपने ही कब अजनबी बन जाते हैं,
राहों में चलते अजनबी भी पता नहीं 
प्रेम भरी नजर में अपनों से नजर आते हैं। 

हर पल लगता कुछ छूट गया,
हर पल लगता कुछ नियम टूट गया। 
इस छूटने टूटने के बाद कुछ नूतन होगा,
पीड़ा होगी पर कुछ तो परिवर्तन होगा। 

थोड़ी सेवा, थोड़ा समर्पण
चार हाथों के छत के नीचे,
सूर्यास्त की लालिमा सिन्दूरी लिए 
अस्त होते मन में नया भोर तो जरूर होगा।  

No comments:

Post a Comment