मेरी पलकों पे
क्या बादलों का
बसेरा है ?
सुख से जब
रोम- रोम होते
पुलकित, सिहरन
फैल जाती रगों में,
अखियाँ बरबस
बरस पड़ती है
बिना आहट के,
रोके नहीं रूकती,
मुझसे 'वह
मेरी है',
अहसास करा जाती.
बहने देती हूँ,
बहने से सुख
का बोझ
भारी नहीं होता.
मन कभी दुःख
टटोल कर
टहलने छोड़ देता
हमारे रगों पर,
टीस उठती,
टप- टप बूंदें
टपक पड़ती.
अहिस्ते-अहिस्ते
बोझिल मन
धुलने लगता,
बह जाते सारे विसाद
दुःख भी बहा
सुख भी बहा.
सचमुच क्या मेरी पलकों पर
है बादलों का बसेरा?
बहने से सुख
का बोझ
भारी नहीं होता.
मन कभी दुःख
टटोल कर
टहलने छोड़ देता
हमारे रगों पर,
टीस उठती,
टप- टप बूंदें
टपक पड़ती.
अहिस्ते-अहिस्ते
बोझिल मन
धुलने लगता,
बह जाते सारे विसाद
दुःख भी बहा
सुख भी बहा.
सचमुच क्या मेरी पलकों पर
है बादलों का बसेरा?
अहिस्ते-अहिस्ते
ReplyDeleteबोझिल मन
धुलने लगता,
बह जाते सारे विसाद
दुःख भी बहा
सुख भी बहा.
सचमुच क्या मेरी पलकों पर
है बादलों का बसेरा?
बहुत सुंदर ...भाव संवेदनशील हैं पर यह प्रश्न यथार्थ का आइना लगता है.... कमाल की पंक्तियाँ
आपके विचार बहुत अच्छे हैं।
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