Thursday, October 1, 2009

चाहत

बस एक चाह थी
कोई एक राह मिल जाए
जिस पर चल कर
हर चाह मिट जाए

हर बात की शुरुआत
एक चाह से होती है
यहाँ चाह से मुक्त होने में भी तो
एक चाह पैदा हो गयी

ये चाहत के सिलसिले
समाप्त ही नहीं होते
मुंह मोड़ लो तो कुछ लम्हे
ठहर भी जाये
पुनः आने को आतुर रहते

शायद जीवन का मतलब ही
कुछ पाने की चाह के केंद्र में टिका है
उसी केंद्र पर प्रभु भी बैठा है
चाहत मिटी वह प्रकट हो जाता है
चाह को जगाना ही
उसे छुपाना है

इसी लुका छिपी, राग वैराग्य में
जीवन के खेल खेलती हूँ
कभी गम के बादलों में छुपती
तो कभी खिलखिलाती धूप में
प्रकट हो जाती हूँ

                 @बंदना

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