अगरबत्ती को आज जलते देखा
पल-पल वह जलती, राख होती जा रही थी
साथ-साथ खुशबू धुएं में उड़ा रही थी
एक तिनके पर चढाये गए थे मसाले,
मसाले के जलने तक थी उसकी आयु,
जब तक जली, महक उठा कमरा,
बुझी तो राख एवं छोटा सा तिनका बचा
जब-जब मैं भी जली,
तब-तब अहम् को लिए मिटी,
अब भी ना जाने कितने मसाले,
चिपके हैं मन पर
हौले-हौले जलेंगे सारे
हल्के-हल्के राख बन उड़ेंगे सारे
जीवन रहते चाहे मसाले भर लो जितनी,
हम इंसान की कीमत है बस इतनी।
--बंदना
@bandana mam
ReplyDeletei really like the way u compared an agarbatti with a persons life.. his ego..!! really a great work..
speacially the lines..
जब-जब मैं भी जली,
तब-तब अहम् को लिए मिटी,
were too gud..
seriously.. hum to bahaut chhote hai is bare mein kuch kehne ke liye.. but jitni bhi samajh mein aayi.. bahaut achhi lagi..
wud like to hear more frm u in future.. keep writing.. :)
बहुत-बहुत धन्यवाद. तुम मेरी कविता की गहराई तक पहुँच सके, मेरे कविता लिखने का मकसद सफल हो गया. तुम्हारी भी कविताएँ मैंने पढ़ी, मर्मस्पर्शी थीं. भौतिक युग में अध्यात्मिक रूचि रखने वाले मुझे अपने बहुत करीब लगते हैं.
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