दस चेहरे अपने
कब चाहा था मैंने
एक ही चेहरा अन्दर
और एक ही चेहरा बाहर
बनाये रखा बरसों।
बदलती जा रही हूँ
पुराने वजूद को
जब ग़मगीन होती
मुस्कराहट का मुखौटा
चढ़ा लिया,
नयनो से धारा बन बहते आंसू की जगह
सख्त, तने चेहरे लिए,
साहस को समेटती
बेबाक, उन्मुक्त बोल जाती थी जहाँ
वहां मूक, बुत सा चेहरा लिए होती,
जिस सभा में अपनी
आभा लगती मद्धिम
वहां भी दीप की तरह
जलाये रखती खुद को।
अलग-अलग रिश्तो में
बदलने पड़ते चेहरे
जब कोई चेहरा नहीं होता
तब सिर्फ खुद होते
जीवन के इस रंगमंच के नीचे।
@बन्दना