जीवन की चक्की में,
गोल-गोल घुमती,
अपनी आयु से निकले
एक-एक दिन
एक-एक दाने
पीसते-पीसते अनुभव के आंटे,
करूणा के शीतल जल से गुंथे,
प्रेम से उसको आकार दिया
उर्जा की अग्नि में पकाया,
फिर पक्की-कच्ची गोल-गोल रोटी
बनकर आई मेरी कविता
जीवन में कड़वे-मीठे अनुभव
आते और यूँ ही चले जाते,
जैसी पकड़ चीज़ों की
उतना सुख-दुःख का एहसास,
इसी में उलझी
इससे ही निकली,
कभी बंधन में जकड़ी
कभी उन्मुक्त हल्की,
सारे अनुभवों को
कपड़ों की तरह ढकती
आई मेरी कविता
जीवन की ज़मीन पर
जिसने जन्म लिया
वह कहीं ना कहीं
अवश्य है खड़ा.
सड़क का फुटपाथ
या झुग्गी झोपड़ी
अमीरों के महल
या मध्यम वर्ग का मकान,
वास व आवास के इन एहसासों से बनती
आई मेरी कविता