Saturday, May 10, 2014

माँ की महक


माँ की महक अब नथुनो से नहीं,
स्मृति के तहखानो से आती है। 

क्रीम, पाउडर माथे पर बड़ी सी बिंदिया,
हाथोँ में रंग-बिरंगी कांच की दर्जनो चूड़ियाँ।


अबरख छिड़का कलफ़दार कड़क सूती साडी,
कीमती सड़िों पर पड़ती थी वह भारी।  

निकल पड़ती स्वतंत्र, घर के घेरे से,
हम बहनोँ को नामंजूर होता उसका जाना डेरे से। 

एक बहन रोदन, एक बहन रहती मौन,
समझाती माँ, 'आती हूँ , बस कुछ समय बाद लौट'। 

दूर से देख लेती, आ रही वो,
दोनो बहन दौड़ पड़ती, गेट खोल उसकी ओर। 

दोनोँ हाथोँ में दोनोँ बेटियाँ,
मुस्कराहट की टन-टन बजने लगी तीनोँ के मुख पर घंटियां। 

अब न माँ है जवां, न बेटियाँ बच्ची,
बीती कथा बनकर रह गयी, जो थी कभी सच्ची।