Thursday, May 31, 2012

महायात्रा


संसार को संग लिए
करती हूँ कितनी यात्राएँ
सीट हो सुरक्षित 
साज-सामान भर कर
पग-पग पर जागरूक
असुविधाओं से बच कर
निकल पड़ती हूँ दूर कहीं.

पूछते हैं कई लोग
आप अकेले नहीं करती यात्रा?
मुस्करा कर कह देती
करुँगी एक महायात्रा
जिसमें कोई संग न जाएगा
जिसमें कुछ भी साथ न जाएगा
निसंग निकल पडूँगी
कोई आरक्षण नहीं
कोई सवारी नहीं
चोर-लुटेरों का पीछा नहीं
जाने की पूर्व तिथि भी नहीं

छोड़ जाउंगी अपने भारी तन को
मन पंछी बन उड़ जाएगा
एक प्रकाश निकल पड़ेगा
इस मतलबी संसार से
बेमतलबी हो जाएगा
महत्वपूर्ण, महत्वाकांक्षी
न जाने क्या-क्या पाने की
लिप्सा लिए कई जन्म भटकने के बाद
शायद अकेले, उन्मुक्त हो जाउंगी.

Sunday, May 27, 2012

लिखती हूँ किसलिए

लिखती हूँ किसलिए?

बड़ी लेखिका बनने का अरमान 
लेती होँगी अंगड़ाईयाँ 
नहीं, कभी नहीं. 

सोचती होगी 
'जो सोचा, और किसी ने 
शायद सोचा न होगा'
नहीं, कभी नहीं. 

बस उमड़ते घुमड़ते
विचारोँ के बादल 
शब्द बन टपकते, 
मन का आसमाँ 
स्वच्छ साफ हो जाता. 
शायद इसलिए. 

अपने अनुभव को यूँ ही 
गुजर जाने देना नहीं चाहती, 
अनुभव की पतली ही सही 
एक गलियारा बना 
कोई सगा, कोई सखा 
भूले भटके गुजरे इससे, 
जीवन की उन तमाम 
खट्टे मीठे स्वाद का जायका ले,
कहीं आह, कहीं वाह 
हो सके मिल जाये उन्हें 
जीवन की कोई राह. 

शायद इसीलिए लिखती हूँ.   

Wednesday, May 9, 2012

कही अनकही

जीवन की लम्बी राहो पे 
चले हम दोनो साथ साथ 

यह कैसा मुकाम आया 
मेरा साया मुझसे बिछड़ गया 

वह थी उसकी आखरी रात 
कहना था मुझसे कुछ बात 

आने वाले कल ने  मुझे रोक दिया 
मैंने उसे बीच में ही टोकदिया 

दिन भर वह जीवन को निगलती 
रात में बिस्तर पर मेरे समक्ष उगलती 

एक दुसरे से इतनी निकटता बढ़ गयी 
दिनचर्या भी एक दुसरे से पूछकरनिबटती 

पेट में उठता था दर्द असहनीय 
अब जीवन के दर्द  कैसेहो सहनीय 

क्या कहना रह गया ?
इस प्रश्न पर जीवन उलझ गया 

काश! मैं वर्तमान में होता 
रख पता  मर्तवान अपनी खाली 
अंतिम साँस में उसे मुक्त रखता 
अपने अकेले जीवन में 
इस अफसोस का मलवा नहीं ढ़ोता