Monday, October 5, 2009

अगरबत्ती

अगरबत्ती को आज जलते देखा
पल-पल वह जलती, राख होती जा रही थी
साथ-साथ खुशबू धुएं में उड़ा रही थी
एक तिनके पर चढाये गए थे मसाले,
मसाले के जलने तक थी उसकी आयु,
जब तक जली, महक उठा कमरा,
बुझी तो राख एवं छोटा सा तिनका बचा

जब-जब मैं भी जली,
तब-तब अहम् को लिए मिटी,
अब भी ना जाने कितने मसाले,
चिपके हैं मन पर
हौले-हौले जलेंगे सारे
हल्के-हल्के राख बन उड़ेंगे सारे

जीवन रहते चाहे मसाले भर लो जितनी,
हम इंसान की कीमत है बस इतनी।

--बंदना

Thursday, October 1, 2009

चाहत

बस एक चाह थी
कोई एक राह मिल जाए
जिस पर चल कर
हर चाह मिट जाए

हर बात की शुरुआत
एक चाह से होती है
यहाँ चाह से मुक्त होने में भी तो
एक चाह पैदा हो गयी

ये चाहत के सिलसिले
समाप्त ही नहीं होते
मुंह मोड़ लो तो कुछ लम्हे
ठहर भी जाये
पुनः आने को आतुर रहते

शायद जीवन का मतलब ही
कुछ पाने की चाह के केंद्र में टिका है
उसी केंद्र पर प्रभु भी बैठा है
चाहत मिटी वह प्रकट हो जाता है
चाह को जगाना ही
उसे छुपाना है

इसी लुका छिपी, राग वैराग्य में
जीवन के खेल खेलती हूँ
कभी गम के बादलों में छुपती
तो कभी खिलखिलाती धूप में
प्रकट हो जाती हूँ

                 @बंदना

बेटी




एक ही सांस से दो जीवन चल रही थी
माँ के अन्दर एक बेटी पल रही थी
कुछ अरमान थे अधूरे, इस ख्वाब से जुड़े
जो मुझ से ना हो सका,
वह यह कर दिखलाएगी
बिटिया से ही पूर्ण हो जाउंगी
उसके लिए हर जोखिम उठाऊंगी

दहेज़ दानव के घर ना जायेगी,
स्वाभिमान से जीवन बिताएगी
दो कुलों की रक्षा करेगी
किन्तु अपनों पर आंच ना आने देगी
प्रेम ही उसका धर्म होगा
सच्चाई ही उसका कर्म होगा

आज नन्ही से परी ने
मेरे जीवन में कदम रखा,
अभी बेटी थी,
लो! माँ बन गयी

ममत्व और करूणा में
मैं भी अंधी हो जाउंगी?
पिछले आ रहे इतिहास को
क्या मैं भी दोहराऊंगी?

नहीं! नव शिशु के साथ
नव चेतना से जागी हूँ
माया में पर कर अपना होश नहीं गवाऊंगी!

यह नम्र, निर्भीक, नरम दिलवाली होगी
ज़रूरत परने पर इस्पात से भी भारी होगी
पहली बार उसे नज़र उठाकर जब देखा
सारी हसरतों को दिल में दबाकर जब देखा
गोब में लेते ही भरपूर हो गयी
अब क्या? उसी में मशगूल हो गयी!

इस कोमल कली की
पूर्ण सम्भावना तक
संभाल कर रखना होगा
मुझे माँ से माली बन जाना होगा!

-- बंदना