Saturday, September 12, 2009

बंदना





बंद, बंद, बंद,
बाहर जाना बंद,
अन्दर घर में बंद,
बंदना फिर भी न हो सकी बंद,
क्यूंकि वह बंद - ना है.

वह विचारों, सपनो की उड़ान से नभ तक,
कर्म बंधन से बंधी धरती पर,
प्रेम की ज्योत लिए सगे-सम्बन्धियों तक,
करूणा लिए विश्व के प्रत्येक प्राणी तक,
मैत्री भाव से लाबा-लब, मित्रों तक,
कोमल कठोर वात्सल्य लिए बच्चों तक,
पग - पग पर सहयोग एवं आलोचना लिए पति तक,
फैली है, बिखरी है......बंद - ना है.

-बंदना

Friday, September 11, 2009

मित्रता की लहर


जो मुझमें वही तुम में देखा ,
मिलने का संयोग बना,
एक और एक का योग दो नहीं
यहाँ सिर्फ 'एक' ही होता है .
जो मुझमें नहीं, वह तुम में देखा,
जहां-जहां अपूर्ण थीं, तुमसे ही तो पूर्ण हुई,
जब धरती पर थी मैं, तुम्हें आकाश में देखा,
जब खुद उरान भरने लगी, तुम्हें धरती थामे देखा,
सुख-दुःख की विशेष अवस्था में
दिल ढूंढता हर पल तुम्हें
हे मित्र! जब तुम समस्या के उलझनों में फंसे
मदद के लिए जब मेरे लम्बे हाथ बढे,
निजी एवं रक्त समबंधियों के बीच सिकुड़ते समबन्धों को
एक फैलाव मिला, एक विस्तार मिला.
ईश्वर ! ने चुनाव का मौका दिया,
एक-एक गुण वाले भी एकत्र कर लिए,
खजाना बहुमूल्य रत्नों से भर गया,
जौहरी बन जौहर दिखाना होगा,
पत्थर एवं रत्नों में फर्क समझना होगा,
मित्रता सत्यता पर स्थापित किया
प्रेम में बढ़ी और बहते रही.
बंदना

मेरी नानी


श्वेत रजत सी केश राशि,
सादगी ओढे, सौम्य व्यक्तित्व,
स्वीकार किया,
"नानी ना रही"

काल ने उन्हें हमसे लूटा,
रिश्ते का एक लम्बा धागा टूटा,
अब भी यादों में पलती हैं,
रक्त का अटूट सम्बन्ध,
यादों में नानी डोलती है


नम आखों से खिलखिलाती  हँसी,
बच्चों के साथ घुल - मिल जाना,
आसान नहीं,
यह स्वभाव सरलता की निशानी है,
मेरी नानी सादगी की कहानी हैं

छोटे - छोटे कामों को,
गुनगुनाते, तन्मयता से करते देखा,
साधारण काम को विशेषता दे डालतीं,
समय की पाबन्द,
हर काम समय से करती और कराती,
गणित में चतुर
मिनटों में हिसाब निपटाती थी
नाम "उत्तमा" था
काम उत्तम कर दिखलाती थीं

छोटे से गाँव में, बड़े से शहरों में,
सफ़र चलता रहा,
नानी का कदम एक ताल में,
बढ़ता रहा

दुःख में, सुख में धैर्य धारण,
विषम स्थिति सह लेतीं,
हर रिश्तों के निर्वाह के तरीके,
थे उनके निराले
अपने से संतुष्ट, अपनों से संतुष्ट,
संतुष्ट का सबक सिखलाती थी,
द्वेष, कलह से दूर,
शांति से एकांत, मौन जीवन बिताती थीं

मेरे नरम हाथों को हाथ में दबा कर,
कुछ ऐसा कह जाती थीं,
आँखों में ख्वाब, ह्रदय में विश्वास,
भरपूर जग जाती थी 

संसार में कुछ भी पाने पर,
कृतज्ञता से मन भर जाता है
अपने से बड़ों  का आशीर्वाद,
सचमुच फलित हो जाता है

अब उनके साथ बैठ,
गुफ्तगु तो न हो पायेगी 
पर जब चाहे
 आत्मा आत्मा से रूबरू हो जाएगी.